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कविता

अँधेरे में मुक्ति-बोध

असलम हसन


कौन है मुक्त यहाँ
शायद कोई नहीं...
हाँ मैं भी नहीं
मुक्ति तो जिंदगी ढोते-ढोते मर गई
या रिश्ते समेटने में बिखर गई
मैं क्या
ब्रह्मांड में नाचती पृथ्वी भी तो मुक्त नहीं
आकर्षण बल के अधीन परिक्रमा भी स्वतंत्र नहीं
हृदय भी धमनी-शिरा युक्त है
स्पंदन भी कहाँ मुक्त है
हाँ
मानता हूँ मुक्ति सच नहीं
जिंदगी तो बंधनों के जाल में फँसी मछली जैसी
फिर जीवन संघर्ष से मुक्ति कैसी
स्वच्छ आकाश में
या धरती पर प्रकाश में
मुक्ति कहाँ दिखती है
लेकिन मुक्ति-बोध क्यों होता है हर पल अँधेरे में...

 


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